Thursday, November 4, 2010

वडा पाव

स्टील के भगोने मे

उबला हुआ आलू

खुशी से सनकर गोल हो रहा था

काया सवर गयी थी उसकी


उसकी रगो मे नमक का स्वाद था

देह पर मसाले की गन्ध थी

पानी पानी हो चुके बेसन मे लिपट कर उठा तो

क्या शान थी उसकी,लगा जॆसे दुल्हा चला हो


चुल्हे पर चढी कडाही मे

उसके इन्तजार की गरमाहट कम न थी

गलती से एक बून्द पानी क्या गिरी..भभक उठी लपट

भीतर से प्यार हो

तो इन्तजार करने वालो का गुस्सा भी अच्छा लगता हॆ


जाने कितने हाथ गलबहिया बन उठे

ऒर फूट्ने लगे

पोर पोर से खुशियो के बुलबुले

कभी हाल-चाल, कभी गिला-शिकवा,कभी उलाहने

उनके भीतर का सारा गुस्सा हवा मे उड रहा था

कड्वापन की शॆली मे अपनापन स्वाद बनकर उतर रहा था

ऒर उसकी देह पर बेसन की त्वचा आकार ले रही थी


सामने सडक थी, वाहनो की कतार थी

बगल के ठेले पर तली जा रही थी पकॊडिया..

थोडी दूर पर ही थी..तिरछी निगाहो से मुझे घूरती

अपनी द्शहरे वाली रस भरी जलेबी

मगर मॆ तो आज

मुम्बइ आने के बाद से सजो कर

वडा पाव खाने की अपनी इच्छा लेकर खडा था


मुझे बेचॆन देख

दूसरे स्टील के कटोरे मे पडी

धनिया की चटनी मुस्कराइ

मुझे बहुत अच्छा लगा ,उसका इस तरह

मुस्कराना


थोडी देर मे जब यह वडा

रुइ के नरम फाहे से किसी पाव के भीतर

हरी हरी धनिये की चटनी के बिस्तर पर पडा होगा

मिर्च वाली भी होगी साथ..काटूगा जो पहला काटा

भर जाएगा मन...मिट जाएगी भूख आत्मा की

तब शाग्घाइ होगी अपनी मुम्बइ


अरे ये क्या हुआ....

बी एम सी की गाडी क्या रुकी..पकडी गइ पकॊडी

ऒधे मुह गिरी जलेबी..हलवाइ के चेहरे पर घबराहट

तेल की कडाही मे जॆसे तूफान आ गया..मेरा वडा

समुद्र मे डूबते जहाज की तरह गोता खाने लगा


ऒर मॆ जो खडा था वडा पाव खाने के इन्तजार मे

सिपाही का ड्ण्डा खाकर चला आया 

1 comment:

Rakesh Rohit said...

आपने तो वडे में जान दाल दी पर अंत में तो जान ही सांसत में आन पड़ी. भाई, आपने तो ऐसी कविता लिखी है कि जब भी वडा पाव दिखेगा आपकी कविता याद आ जायेगी.