Thursday, November 4, 2010

रसगुल्ले

पगहा थमा देने के बाद

आख मिलाने की

हिम्मत नही हुई

घर -गइया से


ईमरितवा आम के तने पर

जब चल रही थी

कुल्हाडी

ऒर आरी


कोई सिसक रहा था मेरे भीतर


रुपए थामते काप रहे थे

मेरे हाथ


हलक मे नही उतर सके

कचहरी के

मीठे ऒर स्वाद भरे रसगुल्ले

पुरखो का खेत बेच देने के बाद

3 comments:

Taarkeshwar Giri said...

Adarniya Pandit ji Charan Sprash,


Bahut nik kavita likhale haneen aap.

Taarkeshwar Giri said...

Bhaut hi nimman kavit.

आशीष मिश्रा said...

अच्छी कविता
आपको सपरिवार दिपोत्सव की ढेरों शुभकामनाएँ
मेरी पहली लघु कहानी पढ़ने के लिये आप सरोवर पर सादर आमंत्रित हैं