Wednesday, October 27, 2010

कई बार

कई बार मॆ सोचता हूं
ऒर चुप रह जाता हूं

कई बार मॆ सोचता हूं
ऒर सोचकर सह म जाता हूं


डर लगता कई बार
पूछते अपने से भी


प्रतिभा
ऒर नीचता
क्या रह सकती हॆ एक साथ

2 comments:

BRAJESH PANDEY said...

बहुत चुटीली कविता .मन के गहरे दर्द की परतों को खोलती .

अमृत उपाध्याय said...

डराने, सहमाने वाली इस सोच का निष्कर्ष क्या रहा है..रोज-ब-रोज यही बात परेशान कर रही है कि क्या नीचता और प्रतिभा एक साथ रह सकती हैं...जवाबी पंक्तियों का इंतजार है...