Tuesday, June 21, 2011

लोकपाल


जन्तर मन्तर पर उस दिन

लाखो लाख जब चहक रहे थे

लाखो लाख जब बह्क रहे थे

सपने ही सपने महक रहे थे

चिपका रहा टी बी से मॆ भी

आंख से सांसे ले रहा था

कान से नारे लगा रहा था

उथल पुथल मची थी मन मे

सब कुछ वही वही था मंजर

सोचा करता था जो अक्सर

जन्तर मन्तर घर के अन्दर

मन के अन्दर जन्तर मन्तर

जहां भी देखो जन्तर मन्तर

जहां भी जाओ जन्तर मन्तर

अब तक जाने कहां छुपे थे

बापू के ये सारे बन्दर

जिससे पूछा उसमे सबने

मेरे जॆसे जाने कितने

अनजानो को जाना मॆने

देश को यूं पहचाना मॆने

सब के सब यही सोच रहे थे

काश वहा पर मॆ भी होता

जिस तट को अन्दर ही अन्दर

काट चुकी हॆ धार नदी की

उस पर खडे काग्रेसी तरुवर

पांव कांप रहे जिनके थरथर

रास्ता रोकेंगे आंधी का

रास्ता रोकेंगे गांधी का

लाखो लाख जहां चहक रहे हॆ

लाखो लाख जहां बह्क रहे हॆ

सपने ही सपने महक रहे हॆ

अन्ना सबको भुला न देना

हम सब भी शामिल हॆ उनमे


1 comment:

Padm Singh said...

बहुत अच्छे उद्गार.... जंतर मन्तर पर जो नहीं पहुँचा शायद वो उस उछाह.. उस आनंद और उस अनुभूति को शायद ही समझ पायेगा... सच मानिए वहाँ से दिन रात हटने का मन नहीं होता था