Sunday, November 7, 2010

अकथ कथा

1

एक है राम लगन
दूसरा सी टहल

दुनिया के साथ
दुनिया से अलग

बैठे रहते है
पीपल के नीचे
इस तरह ताजगी से भरे
जैसे घरती का दूध पीकर हुए हो जवान

जैसे अभी अभी जमीन से निकले हो
और फेक दिया हो कंछा

जैसे अभी अभी गई पुरवा के
झोके से टकराकर
टपके हो
पीपल के पेड से दो गोदे


2

अगर ऐसा हो
कि पीपल के सारे पत्ते पूड़ी हो जाय
और पोखर का पानी दही
तो मजा आ जाए

क्यो भाई राम लगन

हां भाई सी टहल

अपनी नवीन कल्पना पर
लोट पोट हंसते रहे
देर तक
फिर एकाएक चुप

लगा जैसे
कुछ गलत निकल गया हो
मुंह से
चुप्पी के बीच
पसर गया था चेहरे पर
दुनिया के बासीपन का स्वाद


3

भर लगन
इनकी दुनिया दौडती है
बुंदिया की बाल्टी और हाथी के
कान जैसी पूड़ी पर..

शादी हो
बाराती बन जाय
रात भर नाच देखे
जम कर खाएॅ

मौत हो तो जय श्री राम
माथे पर टीका लगा
बन जाए
बाभन

जाते समय अधिकार से लें
भोजन की दक्षिणा भी..

ईख का गुल्ला
चने का होरहा ,
गेहूॅ की उमी बाजरे का सूरका ,
मकई का पकौढ़ा और जोन्हरी की मुका-मुकी
कितना कुछ दिया है धरती ने जब
हाथ खोलकर
तो कठिन नही है घरती पर जीना
वैसे भी काम करने से अब
किसी का पेट नही भरता
और अकल हो तो कोई
भूखा नही मरता

ये देखिए
पुडी और आलू परवल की सब्जी

ये देखिए
रसगुल्लों की बिछलहर

ये देखिए
रस भरी इमरती जलेबी ...

और ये छिलबिल दही..

बोल भाई राम लगन
हां भाई सी टहल ।

1 comment:

पद्म सिंह said...

बहुत सुन्दर और आवारा रचना ... भावों और ग्राम्य शब्दावली की मोहक उड़ान के साथ और भी सोंधी लगने लगती है ... आभार !

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