Sunday, November 7, 2010

डेली पसिंजर

महज आधा घंटे की देर ने
जब अलग कर दिया काम से
तो फूटी अकल
और अगले दिन
साथ आई स्टेशन पर सायकिल

गाड़ी आई
तो छतो से जैसे भन भनाकर उड़े बर्रे
ठेला वाले खोमचा वाले और कुली
इस तरह मची ठेलम ठेल ..इस तरह उभरा षोर
कि बैठ गया मन
यकीन हो गया कि अब न होगा जाना

जब जोर आजमा कर चढ़ रहे हो चढ़ने वाले
मुश्किल हो तलवे के लिए जगह
कैसे चढ़ेगी लोहे की देह
कहा मिलेगी जगह

दो डब्बो के बीच की जगह पर टिकी ही थ्ाि नजर
कि पुकार लिया अनजान चेहरो ने

अपरचित और सधे हाथ
खिड़की से बाहर निकले और थाम लिया
कहा मिला था
कभी आदमी के जीवन मे
यह मान

भीतर जाकर देखा तो
बडे मजे में थी
लोहे की महारानी..ठेलम ठेल
धक्का मुक्की ..पसीने की बदबू से दूर
रूमाल के सहारे खिड़की से बंधी
रह रहकर ऐसे बज उठती थी घंटिया
जैसे मुझसे ही कह रही हो कि
खयाल रखना अपना

अब तो
वही जगह बन गई है उनकी
जाम हो गया है हैन्डल और कैरियर मे
लोहे का हूक

डब्बे खाली हो
तब भी वही टंगती है
ट्रेन की गति से चलती है
वह भी डेली पसिंजर है।




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