जन्तर मन्तर पर उस दिन
लाखो लाख जब चहक रहे थे
लाखो लाख जब बह्क रहे थे
सपने ही सपने महक रहे थे
चिपका रहा टी बी से मॆ भी
आंख से सांसे ले रहा था
कान से नारे लगा रहा था
उथल पुथल मची थी मन मे
सब कुछ वही वही था मंजर
सोचा करता था जो अक्सर
जन्तर मन्तर घर के अन्दर
मन के अन्दर जन्तर मन्तर
जहां भी देखो जन्तर मन्तर
जहां भी जाओ जन्तर मन्तर
अब तक जाने कहां छुपे थे
बापू के ये सारे बन्दर
जिससे पूछा उसमे सबने
मेरे जॆसे जाने कितने
अनजानो को जाना मॆने
देश को यूं पहचाना मॆने
सब के सब यही सोच रहे थे
काश वहा पर मॆ भी होता
जिस तट को अन्दर ही अन्दर
काट चुकी हॆ धार नदी की
उस पर खडे काग्रेसी तरुवर
पांव कांप रहे जिनके थरथर
रास्ता रोकेंगे आंधी का
रास्ता रोकेंगे गांधी का
लाखो लाख जहां चहक रहे हॆ
लाखो लाख जहां बह्क रहे हॆ
सपने ही सपने महक रहे हॆ
अन्ना सबको भुला न देना
हम सब भी शामिल हॆ उनमे
1 comment:
बहुत अच्छे उद्गार.... जंतर मन्तर पर जो नहीं पहुँचा शायद वो उस उछाह.. उस आनंद और उस अनुभूति को शायद ही समझ पायेगा... सच मानिए वहाँ से दिन रात हटने का मन नहीं होता था
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