भाभी के घर में सो जाएँगी
भईया छत पर
बाबूजी को भी वहीं आराम होता
पर कोई तो होगा,कुटुम्ब के साथ
वे सो रहेंगे वही
मम्मी के बॅसखट पर
मुर्गा पकाने की तकनीक होगी सब्जी में,
कड़ाही में तैरकर फूल जाएँगी पूड़ियां
खुल जाएगा मुँह
अचार के ठस्स भरे मर्तबान का
चौका जमेगा
सजेगा पीढ़ा
सबकुछ दिखेगा सबसे अच्छा
किसी को पता नहीं चलेगा कि घर में
घर के लोगों के लिए नहीं बची जगह
एक पत्थर
खत्म कर देता है नदी का संतुलन
पत्थरों की बारिश में कहां टिकेगा घर
उपर से आ ही जाते हैं
कुटुम्ब
किसी को नहीं पता
बाहर के कमरे में,
जहाँ उखड़ गया है दीवार का पलस्तर
बहुत करीने से चिपका है मुस्कराता हुआ तेन्दुलकर।
2 comments:
बेहद अच्छी लगी रचना ख़ास कर अंतिम बंद
बेहतरीन...एक पत्थर खत्म कर देता है नदी का संतुलन....
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